• Movie Of The Week : दर्शकों का कहना है नाम " पंगा " है पर फिल्म " चंगा " है जी


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    एएबी समाचार । तूफानी तकनीक, बड़े बड़े कलाकारों से भरी ,पैसों की चमक दमक का प्रदर्शन करने वाली ,पाश्चात्य संस्कृति के तेवरों से लवरेज फिल्मों के दौर में अगर एक माध्यम वर्गीय  परिवेश की कहानी को सीधे सरल तरीके से पेश करने को कहा जाए तो उन्हें लग सकता है ऐसी फिल्म बन तो सकती हैं लेकिन दर्शकों को पसंद नहीं आयेगी। लेकिन  ऐसी  फिल्म बन गयी है और  दर्शकों को पसंद भी आ आ रही है । जी हाँ बात  " पंगा " फिल्म की हो रही है ।

    "पंगा" फिल्म सीधे -सादी फिल्मों की   उसी परंपरा को आगे बढ़ाती है। यह कहानी साधारण मध्यमवर्गीय सरकारी परिवार के परिवेश में बसाई गई है। जया (कंगना रनोट) और प्रशांत (जस्सी गिल) बेटे आदी (योग्य भसीन) के साथ भोपाल के रेलवे आवास  में रहते हैं। जया रेलवे मैं नौकरी करती है। यात्रियों को टिकट देना उसकी नौकरी  है। रेलवे में नौकरी उसे इसलिए मिली है क्योंकि वह कबड्डी राष्ट्रीय  टीम की कप्तान रही है। देश के लिए कई सारे पदक  जीत चुकी है। लेकिन शादी के बाद घर-परिवार बच्चा नौकरी मे खो गई है।

    एक भावुक  दृश्य के बाद बेटा आदी इस बात की जिद पकड़ लेता है, उसकी मां को फिरसे  खेलना  चाहिए । और बाल हठ पूरा करने के लिए मां-बाप इस नाटक को अंजाम देने पर लग जाते हैं। आगे क्या होता है, इसी धागे से बुनी गई है पंगा। अभिनय की बात करें तो जया के किरदार में कंगना पूरी तरह से छा जाती हैं। एक मध्यमवर्गीय महिला, उसकी मजबूरियां, उसके सपने, उसका अतीत, जो बारीकियां कंगना ने पेश की हैं, वह वाकई काबिले-तारीफ़ है।

    पंजाब के सितारा  जस्सी गिल प्रशांत के किरदार में में लोगों के दिलों में बस जाते हैं। जिस तरह से उन्होंने प्रशांत को निभाया है, उनसे प्यार हो जाता है। रिचा चड्ढा एक अलग ही रूप में नजर आती हैं। हालांकि वो फिल्म में मुख्य भूमिका में नहीं हैं, उनकी फिल्मांकन में इस फ़िल्म का उल्लेख हमेशा आएगा। सबसे उल्लेखनीय रहा है भसीन का किरदार।  10 साल के योग्य पर्दे पर जिस तरह से प्रदर्शन करते हैं, लगता ही नहीं कि वह अभिनय कर रहे हैं।

    जया की मां बनी नीना गुप्ता का किरदार लंबा नहीं है, मगर उनकी उपस्थिति दृश्य की मजबूती बढ़ा देती है। बाकी सब कलाकारों का भी प्रदर्शन उल्लेखनीय रहा। कुल मिलाकर पंगा सारे देश की महिलाओं की कहानी है, जो अपना सुनहरा कामकाज  और भविष्य छोड़कर घर-परिवार की चक्की में पिस जाती हैं और उफ़ तक नहीं करतीं। इस फिल्म को देखने के बाद उम्मीद की जा सकती है कि जो महिलाएं काम पर लौटने का सपना मन में संजोए हुए हैं, वे उस पर थोड़ा और ध्यान देंगी और साथ ही साथ उनका परिवार भी कहीं सोचने पर मजबूर होगा!

    निर्देशक अश्विनी अय्यर तिवारी ने अपना काम बख़ूबी अंजाम दिया है। निल बटे सन्नाटा और बरेली की बर्फ़ी जैसी सराही गयीं फ़िल्में बनाने वाली अश्विनी ने एक बार फिर साबित किया कि बड़ी बातों को सरलता के साथ पर्दे पर कैसे पेश किया जाता है।
    पंगा फिल्म मनोरंजक होने के साथ साथ समाज को एक अच्छा सन्देश भी देती है . इसको देखना दर्शकों को कुछ नया करने की लिए प्रेरित कर दे तो कोई आश्चर्य नहीं ।