• Advaita Vedanta : भारत में वैदिक ज्ञान की जड़े बहुत गहरी हैं-अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी

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    एएबी संवाददाता । सागर के  डा. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय में चल रही सार्वभौमिक एकात्मवाद केन्द्रित अद्वैत वेदान्त पर अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में अध्यात्म एवं लोक-जीवन में अद्वैत के स्वरुप पर  विचार-विमर्श हुआ । संगोष्ठी में विद्वानों, सन्तों और विचारकों ने बताया कि भारत में वैदिक ज्ञान की जड़े बहुत गहरी हैं । वे जनमानस की चेतना में हैं और उसके रक्त में प्रवाहमान हैं। एक तरफ जहाँ विश्व  की कई सभ्यताएँ नष्ट हो गईं वहीं भारत की ज्ञान परम्परा अक्षुण्ण रही।
    इस सिलसिले में स्वामिनी विद्यानन्द सरस्वती मोक्ष केवल वेदान्त को समझ पाने एवं आत्मसात कर पाने से ही सम्भव है। वहीँ स्वामी हरिब्रह्मेन्द्रानन्द तीर्थ ने अपने वक्तव्य में बताया कि आचार्य शंकर ने केरल में जन्म लेकर मप्र  में आकर गुरु से दीक्षा ली और अपना सम्पूर्ण जीवन इस देश  की संस्कृति के उद्धार में लगाया। संस्कृति की एकता को संरक्षित करने के लिए ही आचार्य शंकर ने पूरे देश  का भ्रमण किया। आचार्य शंकर ने मठों के साथ-साथ मंदिरों की भी स्थापना की। बद्रीनाथ सबसे प्राचीन मंदिर है।
    स्वामी शुद्धिदानन्द जी ने  इस अवसर पर स्वामी विवेकानन्द के शिकागो भाषण के एक सौ पच्चीस वर्ष पूर्ण होने का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि इस भाषण के माध्यम से ही अद्वैत का सिद्धान्त अखिल विश्व  के समक्ष पहुँचा। 'गीता' के श्लोक 'यदा यदा हि धर्मस्य...' के सार को व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा कि सनातन परम्परा और समाज को अंधकार की गर्त में जाने पर ही आचार्य शंकर एवं स्वामी विवेकानन्द का अवतरण हुआ
    स्वामी अद्वेयानन्द सरस्वती ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में अवतार की अवधारणा का उल्लेख करते हुए उन्होंने बताया कि सनातन परम्परा के निर्वाह में जो सन्त लगे हुए हैं वे नित्यावतार हैं। स्वामी हरिब्रह्मेन्द्रानन्द तीर्थ ने आचार्य शंकर के मंडन मिश्र के साथ हुए शास्त्रार्थ की घटना का उल्लेख किया।
        भारतीय वाचिक परम्परा के अध्येता डॉ.  कपिल तिवारी ने अपने वक्तव्य में कहा कि भारत के लोकजीवन  की चेतना के केन्द्र में अद्वैत है। अद्वैत ही उसका जीवन है। आम लोग अद्वैत को जानते नहीं बल्कि जीते हैं। जिस तरह से सूर्य का प्रकाश  फैलता है वैसे ही वैदिक ज्ञान परम्परा के प्रकाश  में भारत में जीवन दृष्टि विकसित हुई। भारत की दो ज्ञान परम्परायें श्रुति और श्रमण हैं। उन्होंने लोकजीवन को परिभाषित करते हुए कहा कि लोक जीवन षटमात्रिकाओं: धरती, प्रकृति, स्त्री, नदी, गाय और भाषा का समन्वय है, लेकिन आज ये ही सर्वाधिक प्रभावित हो रही हैं और इनके लोक-संबंधों में विकार पैदा किया जा रहा है।
    भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी और भारतीय वाङ्मय के चिंतक मनोज श्रीवास्तव ने कहा कि आचार्य शंकर भारत का अतीत ही नहीं, भविष्य भी हैं । उन्होंने भारत के चारों कोनों को एक किया। भविष्य में उनका अद्वैत सिद्धान्त ही भारत को एकसूत्र में बांधेगा।  पश्चिमी विचारकों का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि पश्चिम ने प्रकृति को 'वस्तु ' माना गया। हमारे लोक जीवन में प्रकृति को पूजा गया और लोक ने उसके साथ संबंध स्थापित किया और समान का भाव पैदा किया। लोक आख्यानों में  स्पष्ट रूप से यह बात देखने को मिलती है। हमारा लोक जीवन अद्वैत से ओतप्रोत रहा है। अद्वैत को उस लोकजीवन ने जिया है। लोक के पास अद्वैत अध्ययन से नहीं उसके अनुभव से आया है।
    स्वामी मुक्तानन्द गिरी ने कहा कि भारत की संस्कृति में अद्वैत रचा बसा है और वन समाजों में भी इसके पदचिन्ह स्पष्ट नजर आते हैं। आदि शंकराचार्य ने वन समाजों में विशेष रूप से कार्य किया। जिसका उल्लेख हमें प्राप्त है। इस पर और शोध की जरूरत  है।
    श्याम मनोहर गोस्वामी ने अपने वक्तव्य में कहा कि अद्वैतवाद एक अनूठा उत्सव है। मनुष्य उत्सव प्रिय होते हैं । भारत में उत्सवों की भरमार है। जहाँ द्वैत होता है वहाँ अद्वैत से उत्सव हो जाता है।  ऐसे ही जहाँ अद्वैत का उत्सव होता है वहाँ द्वैत के आनंद का प्रसव होता है।
    प्रो. कुटुम्ब शास्त्री ने कहा कि अद्वैत प्रतिपादन सरल है पर अद्वैत स्थापना कठिन। उपनिषदों का तात्पर्य ही अद्वैत है। शंकराचार्य ने शास्त्रीय अनेक प्रमाणों के माध्यम से अद्वैत का प्रतिपादन किया। जैसे लोक में मृग-मारिचिका भ्रम होता है वैसा ही भ्रम ब्रह्म, जीव, जगत, तत्व में भी होता है। इस भ्रम को दूर करना ही दर्शन  का कार्य है तभी अद्वैत का प्रतिपादन होता है।
    डा. मणि द्रविड़ शास्त्री ने अपने वक्तव्य में कहा कि उपनिषद इसलिए पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि उससे व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को जानने का प्रयास करता है। उन्होंने बताया कि शंकराचार्य ने स्वतन्त्र अद्वैत का उल्लेख नहीं किया है । अद्वैत एक तत्व है । लोक की दृष्टि में जो एकता दर्शन  करते हैं, जो व्यवहार के लिए उपयुक्त है वही अद्वैत है। आनन्दमय ब्रह्म का प्रतीक है। एक आत्मा है, वह भगवान्  का प्रतीक है, वह अनेकानेक जीवों में है। आनन्दमय को समझने वाला व्यक्ति ब्रह्म हो जाता है।
    सांस्कृतिक संध्या: कार्यक्रम में सुप्रसिद्ध गायिका श्रीमती सुधा रघुरामन ने आचार्य शंकर के स्त्रोंतो का गायन किया। इस शास्त्रीय प्रस्तुति ने इस त्रिदिवसीय संगोष्ठी के प्रथम दिवस की गतिविधियों को एक ऊँचाई प्रदान की।